सोचा चांद से आज, मैं सुलह कर लूं
चाय पे बुला कर कुछ, जिरह कर लूं !
आखिर कब तक करूं, नजरंदाज उसे
दिल कहता है फिर दे दूं , आवाज़ उसे !
क्या हुआ जो उसके, नखरों से परेशान हूं
आखिर फितरत से मैं भी, एक इंसान हूं !
साथ उसके मैं, आस्मा का सफर कर लूं
सोचा चांद से आज, मैं सुलह कर लूं !
मुझे लगा कि चांद से सुलह हो गई
पर जाते जाते फिर से कलह हो गई !
कल था पूरा चांद, आज आधा हुआ
उसका नखरा भी पहले से ज़्यादा हुआ !
सितारों के संग भी, वो गैरों सा रहा
चांदनी रात में भी , सबसे छुपता रहा !
उसे छोड़ दूं, या एक और पहल कर लूं
क्या चांद को बुला कर, मै फ़िर से सुलह कर लूं !
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