था कभी गुलजार, जो मेरे गांव का मकान
अब बहुत ही सुनसान, वो मेरे गांव का मकान
आंगन में जहाँ थी, कभी गूंजती किलकारियां
रसोई में अम्मा-बुआ, काटती तरकारियाँ
खिड़की से ही दीखते थे, हरे खेत-खलिहान
अब बहुत ही सुनसान, वो मेरे गांव का मकान
दरवाजे पर लगती थी, जिसके लोगों की चौपाल
जहाँ सब कोई रखता था, सब का ख्याल
कबूतरों का घर था, जिसका खुला रौशनदान
अब बहुत ही सुनसान, वो मेरे गांव का मकान
था गांव का जो घर, अब चला गया शहर
जहा न अपनों की सुध, न परायों की खबर
हुयी सूनी-सूनी गलियां और सड़के वीरान
अब बहुत ही सुनसान, वो मेरे गांव का मकान
था कभी गुलजार, जो मेरे गांव का मकान
अब बहुत ही सुनसान, वो मेरे गांव का मकान
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