Wednesday, January 22, 2020

अहम् ब्रह्मस्मि

हर एक यथा सन्दर्भ में, मैं स्वयं का अंतर्द्वंद हूँ
अपने ही छंद में बंद मैं, स्वयं-कहा स्वच्छंद हूँ

गद्य में मैं, पद्य में मैं,हर कथा का सार हूँ
मैं ही मैं से न मिली, तो मैं ही अपनी हार हूँ

प्रेम पथ की जीत मैं, तो द्वेष का मैं दंड हूँ
अपने ही छंद में बंद मैं, स्वयं-कहा स्वच्छंद हूँ

परम्परा का प्राण मैं, नयी रीत का प्रारम्भ हूँ
वेदना की करुण व्यथा, मैं नए गीत का आरम्भ हूँ

शनैः शनैः जो रस  घुले, उस पुष्प का मकरंद हूँ
अपने ही छंद में बंद मैं, स्वयं-कहा स्वच्छंद हूँ

छद्म-आडम्बर लिप्त मैं, और सत्य का सत्कार भी
माया मोह युक्त मैं, और निर्विकार विचार भी

शिव का रौद्र रूप मैं, वीभत्स हूँ  प्रचंड हूँ
अपने ही छंद में बंद मैं, स्वयं-कहा स्वच्छंद हूँ

साथ और सहयोग मध्य, छिपा हुआ मैं स्वार्थ हूँ
अर्थ और परमार्थ मध्य, अमिट खड़ा यथार्थ हूँ

व्यथित हूँ, द्रवित हूँ , निश्छल आनंद हूँ 
अपने ही छंद में बंद मैं, स्वयं-कहा स्वच्छंद हूँ

उस तरु की डाल मैं, जो स्वयं  फल से झुका
भीष्म की वो स्वांस मैं, वक़्त जो बांधे  रखा

कृष्ण का उपदेश मैं,और अर्जुन का द्वन्द हूँ
अपने ही छंद में बंद मैं, स्वयं-कहा स्वच्छंद हूँ

(स्वयं-कहा: self proclaimed)

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