Tuesday, July 24, 2012

माँ

जाने माँ की थपकी , किसे नेह निमंत्रण देती है 
मेरे नेत्र बंद हो जाते हैं , और नीद अलंकृत होती है 
नन्हीं आँखों के ब्रह्माण्ड में , कितने स्वपन समाहित होते हैं 
जितने नभ में तारे और , सागर में मोती बिखरे होते हैं 

भय लगता है मुझे कभी , फिर नया सबेरा होने से
आँखों के खुल जाने से और दिवा - स्वपन में खोने से
कोमल सुनहरे सपनों पर काले बादल के छाने से
मझधार में उलझी नैय्या के सागर में गोते खाने से

जब इस भय से मेरी आंखे , किंचित ही खुल जाती हैं
सपनो की सुन्दर नगरी , युही छिन्न भिन्न हो जाती है
तब माँ की ममतामयी थपकी , एक नया हौसला देती है
फिर से नेत्र बंद हो जाते हैं , फिर से नीद अलंकृत होती है !

1 comment:

  1. Today only I got to know that you have a blog too. Good! keep it up, writing is more like talking to mother about our joyes and sorrows.

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